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Monday, April 5, 2010

नाज है जिन पर सिने जगत को.......................!



गुरुदत्त का नाम जेहन में आते ही एक ऐसे फ़िल्मकार एवं नायब शख्स की तस्वीर उभरती है जिसने वक्त से बहुत आगे जाकर काम किया | गुरुदत्त ने हिंदी सिनेमा को जो फ़िल्में दी हैं विषय वास्तु, तकनीकी, सम्पादन और संगीत एवं अभिनय सभी स्तरों पर वस्तुत: वे अनमाले व् अविस्मरणीय रचनाये हैं | ९ जुलाई १९२५ को मंगलौर में जन्में गुरुदत्त का व्यक्तित्व पर समन्वित संस्कृति का प्रभाव पड़ा |

बंगाली जीवन और बंगाली सिनेमा का प्रभाव उनके पूरे कैरियर पर साफ़ दिखाई पड़ता है | यह प्रभाव इतना व्यापक रहा की अनेको सिने प्रेमी उन्हें हमेशा बंगाली ही मानते रहे | प्रारंभ से ही उन पर बांगला फिल्मों का माहान निर्देशक अभिनय चक्रवर्ती, ज्ञान मुखर्जी, ए बनर्जी का पूरा प्रभाव रहा | वैसे गुरुदत्त का कला के क्षेत्र में पदार्पण नृत्य का क्षेत्र से हुआ था उन्होंने अंतरास्ट्रीय ख्याति प्राप्त नर्तक उदय शंकर की कला अकादमी अल्मोड़ा में प्रवेश लेकर भारतीय नृत्य का दो वर्षों तक प्रशिक्षण लिया | फिल्मजगत में उनका प्रवेश पूना देवानंद और रहमान जैसे कठोर दिनों के साथियों से हुआ | देव साहब और गुरुदत्त के संघर्ष के वादों और उनके शानदार सफ़र के बारे में मीडिया में बहुत कुछ लिखा और कहा जा चुका है | देवानंद की पहली फिल्म 'हम एक हैं' में वे कोरियोग्राफर थे 'लखरानी में गुरुदत्त ने एक छोटा सा रोल भी किया था परन्तु गुरुदत्त की काबिलियत को सही ब्रेक दिया देवानंद के नवकेतन बैनर ने १९५१ में गुरुदत्त के निर्देशन में 'बाजी' ने हिंदी सिनेमा को कई नायाब प्रतिभाये दे दी | फिल्म बाजी से देवानंद गुरुदत्त की जोड़ी ने महत्वाकांक्षी कर बिगडैल युवक की जो छबि प्रस्तुत की वह पूरे देश में युवाओं के लिए बड़ा क्रेज साबित हुई | जाल १९५२ बाज १९५३ आर पार १९५४, मिस्टर एंड मिसेज ५५, १९५५ जैसी बेहतरीन एवं कामयाब फिल्मों ने गुरुदत्त को बहुत ऊँचे मुकाम पर लाकर खड़ा कर दिया | इन पाँचों फिल्मों में गुरुदत्त नि दिखाया की फिल्म निर्माण के हर पहलू पर उनकी पकड़ कितनी मजबूत और चिंतन बहुत दूरदर्शी है और ज्यादा खुलकर काम करने के लिए वे निर्माण के क्षेत्र में उतरे | उनकी प्रोडक्शन कम्पनी की पहली फिल्म १९५६ में रिलीज हुई और फिल्म सी आई डी ने पूरे देश में हचल मचा दी | यह फिल्म आज भी सार्वकालिक श्रेष्ठतम सस्पेंस एवं थ्रिलर फिल्मों में सुमार की जाती है | १०५६ में उन्होंने 'सैलाब' निर्देशन किया |

१९५७ में गुरुदत्त की अमर कृति प्यासा आई यह फिल्म हिंदी सिनेमा की कुछेक सबसे संवेदनशील कृतियों में शामिल होती है | प्यार और प्रतिष्ठा की तलाश में भटकते एक शायर की कहानी प्यासा ने गुरुदत्त को निर्देशन और अभिनय के शिखर पर लाकर खड़ा कर दिया | यही नहीं १९५९ में 'कागज के फूल' ने तो जैसे उन्हें जीते जी एक किवदंती बना दिया | वे महानतम घोषित कर दिए गए | समीक्षक और सिनेप्रेमी उनकी प्रयोगधर्मिता सैवेदना और प्रतिभा से सम्मोहित होकर रह गए | कागज के फूल व्यवसायिक रूप से भले सफलता प्राप्त न कर सकी परन्तु इसे आज तक उत्क्रष्ट फिल्म निर्देशन का मानक माना जाता है |

उनकी फिल्मों में चौदहवीं का चाँद, साहब बीबी और गुलाम को भी भारी सफलता मिली | साहब बीबी और गुलाम में १९वी शताब्दी के बाद जमीदारी प्रथा में होते बदलावों के मध्य उच्च वर्गीय बंगाली जमींदार परिवार के अन्तर्विरोध के मध्य सामाजिक मान्यताओं और ताने बाने को बड़े ही साहसिक ढंग से प्रस्तुत किया | यह पूरी कहानी फ्लैश बैक में चलती रही सौतेला भाई १९६२, बहुरानी १९६३, भरोसा १९६३, साँझ और सवेरा १९६४, और सुहागन १९६४, गुरुदत्त अभिनीत फिल्में रही हैं | यह सभी फ़िल्में बेहद संवेदनशील विषयों पर केन्द्रित रही है | और मानवीय सरोंकारो तथा सामाजिक विसंगतियों को उकेरने में सफल रहीं गुरुदत्त की प्रोड्क्शन कम्पनी की अंतिम फिल्म बहारें फिर भी आएँगी, १९६६ में आयी यह एक बेहद खूबसूरत फिल्म थी जिसमें देश के प्रगतिशील द्रस्टिकोंण और मानवीय भावनातमक उल्भावों को ख़ूबसूरती से पिरोया गया था | गुरुदत्त की फिल्मों में उनकी व्यतिगत सोच, दार्शनिक चिंतन और निजी जीवन का अक्स बहुत स्पष्ट दिखाई पड़ता है | यह माना जाता है की गुरुदत्त ये मात्र अपनी आधा दर्जन फिल्मों यथा प्यासा, कागज के फूल, साहब बीबी और गुलाम, मिस्टर एंड मिसेज ५५५, आर पार तथा बाजी से हिंदी सिनेमा को इतना सम्रद्ध कर दिया की बर्षों तक उसे दिशा शून्यता या भटकाव नहीं झेलना पड़ेगा | गुरुदत्त ने मानों अपने छोटे फ़िल्मी कैरियर में हिंदी सिनेमा की पूरी झोली भर दी | फार्मूला रोमांस, संगीत संवेदना, मार्मिकता दर्शन महत्वाकांक्षाएं संघर्ष जैसे जीवन के सारे तत्व उनकी फिल्मों में बिखरे मिलते है|

वे सदैव नए प्रयोग के आदी थे और दूसरे कलाकारों के अच्छे प्रयासों की दिल खोलकर सराहना करते थे | उन्होंने जीवन में जिस फिल्म की कामयाबी के लिए बहुत प्रार्थनाएँ कीं वह कोई उनकी फिल्म न होकर बी आर चोपड़ा की कानून थी | कानून बिना गानों की पहली फिल्म थी और गुरुदत्त इस प्रयोगधर्मिता की सफलता चाहते हैं |

१० अक्टूबर १९६४ को इस महान फिल्मकार का आसामायिक निधन हो गया उनके निधन के समय कई प्रोजेक्ट पर काम चल रहा था | प्रोफ़ेसर, राज गौरी बंगाली व् अंग्रेजी एक टुकुहावा बंगाली, स्नीज जैसी फिल्मों की शूटिंग चल रही थी कनीज देश की पहली रंगीन फिल्म बनने जा रही थी | बहारें फिर भी आएँगी, आत्माराम के द्वारा तथा लव एंड गाड के आसिफ एवं संजीव कुमार के सहयोग से पूरी की गयी | गुरुदत्त एक बहुत ही ईमानदार और स्वंम के सबसे बड़े आलोचक थे | वे एक ऐसी फिल्म को लेकर दर्शकों के सामने कभी नहीं जाना चाहते थे जिससे वे स्वंम बहुत ज्यादा संतुष्ट न हों | वे इस बात को लेकर बहुत चिंतित रहते थे कि हमारे देश में समय रहते प्रतिभा कि कद्र नहीं की जाती है | सेल्युलाइड के वार्षिक अंक में प्रकाशित अपने एक लेख में गुरुदत्त ने लिखा था कि गुरुदेव रवींद्र नाथ टैगोर और सत्यजीत रे जैसी हस्तियों को भी देश में तभी सम्मान और प्रतिष्ठा मिलती है जब उन्हें पशचिमी जगत द्वारा पुरस्कृत एवं प्रतिष्ठित किया गया | वे पशचिम के सर्टिफिकेट की मानसिकता से देश को उबारना चाहते थे | गुरदत्त कला के क्षेत्र को सम्रद्ध बनाना चाहते थे | उन्हें यह देखकर बहुत दुःख होता था कि इस देश में अतीत से ही कलाकार और निर्धनता का चोलीदामन का साथ रहा है | उनका मानना था कि ऐसे कलाकारों को टूटने से बचाना होगा जो अभावों के कारण उत्कृष्ट सृजन नहीं कर पा रहे हैं |

गुरुदत्त के साथ कैरियर शुरू करने वाले उनके परममित्र देव आनंद आज भी गुरुदत्त को बहुत याद करते हैं | वे मानते हैं कि वक्त ने हिंदी सिनेमा से उन्हें छीन कर बहुत बड़ा अन्याय किया | उन्हें सृजन और फिल्म निर्माण के लिए केवल एक दशक का छोटा सा समय ही मिल पाया | गुरुदत्त सही मायनों में ऊर्जा, आत्मविश्वास, सृजन, चिंतन और दर्शन के अदभुत व बिरले समन्वित गुणों से भरपूर फिल्मकार थे | गुरुदत्त के असामयिक निधन के बाद स्क्रीन में प्रकाशित देव आनंद की श्रद्दांजलि से ये शब्द मानों शास्वत प्रासंगिकता रखते हैं | 'गुरुदत्त एक स्रजनकर्ता थे, वे कैसे मर सकते हैं, वे हमेशा हमारे दिलों में जीवित हैं | एक महान कलाकार जो सच्चा और शुद्ध हैं वह कभी नष्ट नहीं हो सकता, वह अमर हैं .... गुरुदत्त सदैव-सदैव जीवित रहेंगे .... 'प्रख्यात संवाद, लेखक अबरार अलवी उन्हें उचित ही फिल्मों का 'हेमलेट' करार देते हैं |

पंकज कुमार सिंह
चित्र गूगल से साभार