उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री ने प्रदेश के प्रशासनिक अधिकारियों के सम्मेलन में नौकरशाही को कल्याणकारी प्रशासन की महान परम्पराओं को याद दिलाकर अच्छा ही किया है | वैसे यह चिंता का विषय है कि प्रदेश के मुखिया को अपने प्रशासनिक तंत्र को यह बहुत ही बुनियादी सबक देने की नौबत आन पड़ी है | इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती कि आज पूरे देश में सामाजिक और नैतिक मूल्यों में गिरावट स्पष्ट रूप से दिखाई पढ़ रही है | हमने बेहतर आर्थिक प्रगति की है, नई-नई संस्थाओं का न केवल विकास किया है वरन उन्हें काफी हद तक सुगंठित स्वरुप भी प्रदान कर दिया है | तथापि मूल्यों और परम्पराओं को पुष्ट करने के मामले में हम बहुत कमजोर और भटके हुए साबित हुए हैं | लगभग हर राजनीतिक और प्रशासनिक संस्था में मूल्यों का क्षरण हुआ है और ये संस्थाएं संविधान में अंतर्निहित उद्देश्यों से बहुत ज्यादा भटक गई हैं | यह त्रासदी ही है कि अधिकांश लक्ष्य तकनीकी रूप से पाने कि ज्यादा चेष्टा की जा रही है |
इन प्रयासों से कागजों और आंकड़ों पर प्रदर्शन तो सुधरा हुआ दिख रहा है परन्तु समाज में शांति और सौहार्द का वातावरण कहीं दिखाई नहीं पड़ रहा है | हर तरफ भय, आशंका, तनाव संघर्ष और भविष्य के प्रति गहरी चिंता दिखाई पड़ रही है, एक औसत नागरिक को छोटे- छोटे बुनियादी कामों के लिए वर्षों तक नाक रगडनी पड़ जाती है | युवाओं को उनकी प्रतिभा और शक्ति के अनुसार रोजगार नहीं मिल पा रहा है | शिक्षा महगी और जिन्दगी बहुत सस्ती होती जा रही है | महंगी और तकनीकी शिक्षा के बाद बीई युवा वर्ग अपने भविष्य और कैरियर को लेकर बहुत ज्यादार आशंकित हैं | इन हालातों से उभरने के लिए बहुत सघन प्रयासों कि आवश्यकता है | परन्तु दुर्भाग्यवश सत्ता और प्रशासन के शीर्ष पदों पर जो लोग बैठे हुए हैं और जिनकी ओर औसत नागरिक बेहतर निर्णयों और घनीभूत क्रियान्वयन के लिए निहार रहा है उनका सारा समय अपनी- अपनी कुर्सिया बचाने, अपने को लाभ पहुचाने और खुद के लिए और अच्छा पद प्राप्त करने हेतु प्रयासों में ही व्यतीत हो रहा है |
राजनीतिक अस्थिरता के दौर में आज विकास और कल्याण की साड़ी जिम्मेदारी प्रशासन तंत्र के कन्धों पर ही है | नौकरशाही के सामने यह दायित्व है की वह अपने नकारात्मक सवरूप को त्याग दे और विकास और जनकल्याण के कार्यों के लिए प्रतिबद्द हो जाया जाये | नौकरशाही सदियों से आलोचनाओं के घेरे में रही है | सर्वप्रथम अट्ठारहवीं शताब्दी के मध्य में फ्रांसीसी विचारक दी गोर्ने ने नौकरशाही शब्द का प्रयोग किया था | उन्होंने इस शब्द का प्रयोग शिकायत के रूप में किया था और इसे (ब्यूरोमीनियाँ) फ्रांस के लिए एक भयंकर रोग बताया था नौकरशाही की आधुनिक अवधारणा का प्रस्तुतिकरण मुख्यत: संरचनात्मक तथा कार्यरामक दो द्रष्टियों से किया गया है | मैक्स वेबर ने औद्योगिक क्रांति के प्रारंभिक दिनों में प्रबंध प्रणाली में व्याप्त दास्ताँ, भाई भतीजावाद, शोषण और मनमानेपन के विरूद्ध आदर्श किस्म की नौकरशाही माडल का विकास किया था | वेबर ने नौकरशाही को प्रशासन की तर्कपूर्ण व्यवस्था माना गया है | समाजशास्त्रियों प्रशासनिक चिंतकों ने वेबर की नौकरशाही की बहुत तीखी आलोचना की है | इनका मानना है की नौकरशाही में कुछ भी आदर्श नहीं है |
मार्क्स की मान्यता थी कि नौकरशाही का उदय १६वी शताब्दी के आस- पास तब हुआ जब धन और सत्ता व्यापारी, पूजीपतियों और राजाओं के हांथों में केन्द्रित हो गयी | इसके प्रबंध के लिए नौकरशाही तंत्र की स्थापना की गयी | मार्क्स ने नौकरशाही के चार रूपों अभिवावक, जातीय, संरक्षक और योग्यता नौकरशाही की चर्चा की थी | जातीय नौकरशाही को कुलीनतंत्र तथा संरक्षक नौर्काशाही को लूट पद्वति तथा प्रतिबद्ध नौकरशाही की संज्ञा दी गयी | योग्यता नौकरशाही सभी सभ्य देशों में प्रचलित पद्वति है | इसमें योग्यता आधारित भर्ती होती है |
भारत में उपनिवेश कालीन ब्रिटिश राज में नौकरशाही ही सर्वेसर्वा थी | इसी दौर में देश में नौकरशाही का प्रभुत्व स्थापित हो गया था | आई सी एस अफसरों की ऐसी प्रतिवध श्रंखला विकसित की गयी जिन्होंने शक्ति के बल पैर नियोक्ता के हितों की पूर्ती की | स्वतंत्रता के बाद निश्चय ही इस स्वरुप में बदलाव आना चाहिए था | क्योंकि अब नौकरशाही को ब्रिटिश हितों की नहीं संवैधानिक मूल्यों और लोककल्याण की रक्षा करनी थी | दुर्भाग्यवश ऐसा हुआ नहीं |स्वतंत्रता के पांच दशक से ज्यादा समय के बीत जाने के बाद भी नौकरशाही अंग्रेजी काल के चरित्र और काल से उबर नहीं पाई है | इसमें उसी स्तर का भ्रष्टाचार व्याप्त है | अपने राजनीतिक आकाओं की जी हुजूरी की प्रवत्ति चरम पर है | प्रशासकों ने राजनीतिक गतिविधियों में स्वमं को बहुत अधिक उलझा लिया है और सेवानिवृत के बाद राजनीति में प्रवेश क्र जाने वाले प्रशासकों की संख्या में भरी बढ़ोत्तरी हुई है |
विकास कार्यों को गति देने के इस दौर में भी प्रशासन में लाल फीताशाही बहुत अधिक हैं | समय पर और तार्किक निर्णय न ले पाने की वजह से विकास एवं कल्याण प्रशासन की अवधारणा को गहरी क्षति पहुँच रही है | भारत की नौकरशाही में एक झूठा अहम आज भी समाया हुआ है की वे जनता के स्वामी हैं तथा योग्यता और ज्ञान स्तर पर समाज में सर्वश्रेष्ठ हैं | नौकरशाही में मलाईदार पदों की एक नई अवधारणा विकसित हुई है | जो बताता है कि जनता की सेवा का उद्देश्य उनके एजेंडे में कहीं नहीं है | नौकरशाही का अधिकांश समय अच्छे से अच्छे पदों को प्राप्त करने के लिए जोड़- तोड़ में ही जा रहा है |
ऐसे प्रशासकों की संख्या आज बहुत कम रह गयी है जो ग्रामीण अंचलों और पिछड़े इलाकों में विकास कार्यों को गति देने के लिए रुचि पूर्वक जाना चाहते हों | बाड़े शहरों में तैनातियौं और सुविधाओं के लिए प्रशासकों में कड़ी स्पर्धा चल रही है | जिलों व् तहसीलों में तैनात होने वाले अधिकारी तैनाती स्थल पर रहने के बजाय शहर में रहते हैं | अधिकारियों के निवास स्थानों को जनता से बहुत दूर बनाया जाना आज भी अंग्रेजी काल की परिपाटी को कायम रखने जैसा है | लोकसेवा में आने के बाद भी जनता से दूरी बनाए रखने की भारतीय नौकरशाही प्रवत्ति अनूठी है |
वास्तव में तेजी से बदलते आर्थिक और तकनीकी युग में नौकरशाही के इस घिसे पिटे तंत्र को और अधिक बर्दास्त कर पाना संभव नहीं हो सकेगा | इससे विकास योजनाओं को तेजी से नुकसान पहुँच रहा है और कार्यकुशलता इमानदारी और कर्तव्यनिष्ठा के उच्च मानकों में जंग लगती जा रही है | एक रूढीवादी और अहंकारी नौकरशाही के साथ भारत को विकसित राष्ट्र का दर्जा दिला पाना नामुमकिन ही है | भारतीय प्रशासन में हम इतने दशकों बाद भी विशेषज्ञों, तकनीशियनों और वैज्ञानिकों को सम्मानजनक स्थान प्रदान नहीं कर सके हैं | यही सबसे बड़ी और घटक विफलता है | सामान्यज्ञ अधिकारी (आईएएस) सभी महत्वपूर्ण एवं विशेषज्ञ प्रकृति के विभागों को डकारते जा रहे है | विशेषज्ञों की योजनाओं और त्वरित निर्णयों वाले स्थानों पर सामान्यज्ञ अधिकारी अडंगा लगाने वाले ही साबित हुए हैं | सचिवालय तंत्र नीति निर्देशन के स्तर पर बहुत प्रभावी सिद्ध नहीं हो पा रहा है | व्यवास्था में शक्ति प्रदर्शन की अतिशय स्पर्धा और अहम भाव के चलते अच्छे और त्वरित निर्णय हो ही नहीं पा रहे हैं | हमारा प्रशासक वर्ग एक नयी जाती एवं अभिजात्य वर्ग के रूप में उभरा है और यही प्रवत्ति चिंताजनक है | आज लोक सेवाएँ कानून की प्रतीक और संरक्षक से अधिक कानून की मालिक बन गई हैं | स्वतंत्रता के बाद भारत में नौकरशाही ने अपनी शक्तियों को अक्षुण बनाए रखने के लिए बहुत अनैतिक समझौते किये हैं | वोहरा कमेटी की रिपोर्ट ने इस बात पर चिंता प्रकट की थी की अपराधियों और माफिया तत्वों को सामानांतर सरकार चलाने में नौकरशाही मूक समर्थन प्रदान कर रही है |
नौकरशाही ने विगत पचास वर्षों में अपना आकार जितना व्यापक किया है उस मात्रा में उसने न तो अपनी उपादेयता सिद्ध की है और न ही बहुत तीब्र गति से विकासोन्मुखी एवं कल्याणकारी कार्य किये हैं | 'पाकिर्सन नियम' कि नौकरशाही का आकार बढने से कार्य की मात्रा कम होती है, भारत में एक सच्चाई है | आज विश्व में यह स्वीकार किया जाने लगा कि नौकरशाही बिलकुल गुजरे ज़माने कि व्यवस्था है और आज के बदलते विश्व में यह बिलकुल अनावश्यक है | किसी भी व्यस्था में जब तक वैज्ञानिकों, इंजीनियरों, चिकित्सको, पेशेवरों लोगों और विशेषज्ञों को सम्मान और नीति निर्णयन के अधिकार नहीं मिलते तब तक विकास की बात बेमानी ही है | भारत में लोक सेवाओं के प्रति अभिभावकों और युवा होती पीढी का जितना तीब्र रूझान है वह विशेषज्ञ सेवाओं की ओर नहीं है | इससे देश में विशेषज्ञों का मनोबल गिरा है और उनकी प्रतिभा, मेधा और कार्यकुशलता का देश को समुचित लाभ प्राप्त नहीं हो पाया है | नौकरशाही वस्तुत: एक सेवक के रूप में बहुत उपयोगी है | परन्तु एक स्वामी के रूप में अत्यंत घटक | नौकरशाही पर सकारात्मक नियंत्रण रखने एवं उसको प्रगतिशील दिशा देने के लिए राजनीतिक तंत्र को सक्षम, योग्य एवं प्रगतिशील गोना पड़ेगा | आज राजनीतिक कार्यपालिका योग्यता एवं प्रशासनिक ज्ञान के आभाव के कारण नौकरशाही पर बहुत अधिक आश्रित है | एक लोकतान्त्रिक व्यवस्था के लिए यह स्थित बहुत घातक है | इससे सत्ता की वास्तविक लगाम नौकरशाही के हाँथ में आ जाती है और वह अनुदारवादी तथा अनुत्तरदायी बनती चली जाती है | राजनीति में इसीलिए विद्वानों विशेषज्ञों एवं मेधावी जनों की आवश्यकता आज बहतु बाद गई है |
वास्तव में तेजी से बदलते आर्थिक और तकनीकी युग में नौकरशाही के इस घिसे पिटे तंत्र को और अधिक बर्दास्त कर पाना संभव नहीं हो सकेगा | इससे विकास योजनाओं को तेजी से नुकसान पहुँच रहा है और कार्यकुशलता इमानदारी और कर्तव्यनिष्ठा के उच्च मानकों में जंग लगती जा रही है | एक रूढीवादी और अहंकारी नौकरशाही के साथ भारत को विकसित राष्ट्र का दर्जा दिला पाना नामुमकिन ही है | भारतीय प्रशासन में हम इतने दशकों बाद भी विशेषज्ञों, तकनीशियनों और वैज्ञानिकों को सम्मानजनक स्थान प्रदान नहीं कर सके हैं | यही सबसे बड़ी और घटक विफलता है | सामान्यज्ञ अधिकारी (आईएएस) सभी महत्वपूर्ण एवं विशेषज्ञ प्रकृति के विभागों को डकारते जा रहे है | विशेषज्ञों की योजनाओं और त्वरित निर्णयों वाले स्थानों पर सामान्यज्ञ अधिकारी अडंगा लगाने वाले ही साबित हुए हैं | सचिवालय तंत्र नीति निर्देशन के स्तर पर बहुत प्रभावी सिद्ध नहीं हो पा रहा है | व्यवास्था में शक्ति प्रदर्शन की अतिशय स्पर्धा और अहम भाव के चलते अच्छे और त्वरित निर्णय हो ही नहीं पा रहे हैं | हमारा प्रशासक वर्ग एक नयी जाती एवं अभिजात्य वर्ग के रूप में उभरा है और यही प्रवत्ति चिंताजनक है | आज लोक सेवाएँ कानून की प्रतीक और संरक्षक से अधिक कानून की मालिक बन गई हैं | स्वतंत्रता के बाद भारत में नौकरशाही ने अपनी शक्तियों को अक्षुण बनाए रखने के लिए बहुत अनैतिक समझौते किये हैं | वोहरा कमेटी की रिपोर्ट ने इस बात पर चिंता प्रकट की थी की अपराधियों और माफिया तत्वों को सामानांतर सरकार चलाने में नौकरशाही मूक समर्थन प्रदान कर रही है |
नौकरशाही ने विगत पचास वर्षों में अपना आकार जितना व्यापक किया है उस मात्रा में उसने न तो अपनी उपादेयता सिद्ध की है और न ही बहुत तीब्र गति से विकासोन्मुखी एवं कल्याणकारी कार्य किये हैं | 'पाकिर्सन नियम' कि नौकरशाही का आकार बढने से कार्य की मात्रा कम होती है, भारत में एक सच्चाई है | आज विश्व में यह स्वीकार किया जाने लगा कि नौकरशाही बिलकुल गुजरे ज़माने कि व्यवस्था है और आज के बदलते विश्व में यह बिलकुल अनावश्यक है | किसी भी व्यस्था में जब तक वैज्ञानिकों, इंजीनियरों, चिकित्सको, पेशेवरों लोगों और विशेषज्ञों को सम्मान और नीति निर्णयन के अधिकार नहीं मिलते तब तक विकास की बात बेमानी ही है | भारत में लोक सेवाओं के प्रति अभिभावकों और युवा होती पीढी का जितना तीब्र रूझान है वह विशेषज्ञ सेवाओं की ओर नहीं है | इससे देश में विशेषज्ञों का मनोबल गिरा है और उनकी प्रतिभा, मेधा और कार्यकुशलता का देश को समुचित लाभ प्राप्त नहीं हो पाया है | नौकरशाही वस्तुत: एक सेवक के रूप में बहुत उपयोगी है | परन्तु एक स्वामी के रूप में अत्यंत घटक | नौकरशाही पर सकारात्मक नियंत्रण रखने एवं उसको प्रगतिशील दिशा देने के लिए राजनीतिक तंत्र को सक्षम, योग्य एवं प्रगतिशील गोना पड़ेगा | आज राजनीतिक कार्यपालिका योग्यता एवं प्रशासनिक ज्ञान के आभाव के कारण नौकरशाही पर बहुत अधिक आश्रित है | एक लोकतान्त्रिक व्यवस्था के लिए यह स्थित बहुत घातक है | इससे सत्ता की वास्तविक लगाम नौकरशाही के हाँथ में आ जाती है और वह अनुदारवादी तथा अनुत्तरदायी बनती चली जाती है | राजनीति में इसीलिए विद्वानों विशेषज्ञों एवं मेधावी जनों की आवश्यकता आज बहतु बाद गई है |
नौकरशाही को प्रतिबद्ध बनाने की आवश्यकता है | यह प्रतिबद्धता जनकल्याण एवं विकास योजनाओं तथा सम्वैधानिक मूल्यों के प्रति होनी चाहिए | स्वतंत्रता के पचास वर्ष से अधिक का समय बीत जाने के बाद भी हम नौकरशाही को क्योँ उत्तरदायी, जवाबदेह और लक्ष्योंमुख नहीं बना पाए | इस पर गहन चिन्तन और व्यापक विमर्श की आवश्यकता है | देश के महामहीम राष्ट्रपति ए.पी.जे.अब्दुल कलाम से लेकर लगभग सभी शीर्ष राजनेता, विद्वान और देश को विकसित राष्ट्र का दर्जा दिलाने को प्रयासरत एवं उत्सुक नागरिक देश की नौकरशाही की दिशा और दशा से बेहद चिंतित हैं, परन्तु मात्र चिंता व्यक्त करने के रिवाज़ से बाहर निकलकर इस दिशा में वाकई ठोस प्रयास करने होंगे, नौकरशाही को आत्मावलोकन करना होगा की उसने संविधान और समाज के प्रति अपने सरोकारों के साथ न्याय क्योँ नहीं किया.......
* * * * * PANKAJ K. SINGH