Thursday, April 1, 2010

Mere prabhu........

कहाँ मैं जा रहा हूँ.........


ज़िन्दगी के मायने हैं क्या ,मैं ये समझूंगा कैसे ,
कामयाबी में डूबता जा रहा हूँ !!


छंट जांएगे दौलत से ग़ुरबत के ये बादल ,
ये कैसी तालीम पाता जा रहा हूँ !!


बर्बाद हो के भी जो मैं कुछ सीख पाया ,
कैसे कहते हो मैं घाटे में रहा हूँ !!


वक़्त हाथों में ठहरता ही नहीं है ,
क्यों मैं मुठ्ठी बंद करता जा रहा हूँ !!


खुदा तो खुद मेरे अन्दर बसा है ,
क्यूँ मैं काशी और क़ाबा जा रहा हूँ !!


सच ने कुछ ऐसे बवंडर कर दिए हैं ,
कोरी अफवाहों में जीता जा रहा हूँ !!


मोहब्बत एक तमाशा बन गयी है ,
आग है और खेलता ही जा रहा हूँ !!


न जाने किस की सोहबत में नशा" सच" का लगा है ,
हर आदमी से दूर होता जा रहा हूँ !!


कहीं तो सुलझेंगी ये उलझने सब ,
मौत से पहले कहाँ मैं जा रहा हूँ !!


ज़िन्दगी तो पहले भी आसां नहीं थी ,
क्यूँ मैं अब बेसब्र होता जा रहा हूँ !!


खून के रिश्तों ने कुछ बाँधा है ऐसे ,
सोने की जंजीरों में जकड़ा जा रहा हूँ !!


कुछ छिन जाने की दहशत से मैं इतना डर गया हूँ ,
माँ के आँचल में सिमटता जा रहा हूँ !!


आप तो अपने ही थे फिर क्या हुआ जो ,
आपकी यादों से भी कतरा रहा हूँ !!


साथ किसके कोई मरता ही कहाँ है ,
क्यूँ कसमें झूठ खाता जा रहा हूँ !!


जो मुकद्दर में लिखा है, होता तय है ,
क्यूँ लकीरों से मैं लड़ता जा रहा हूँ !!

3 comments:

  1. बहुत सुन्दर
    बेहतरीन रचना के साथ आगाज किया है हुजूर
    चंद लाइनों में अपनी दिल की बात कह दी बिलकुल सच
    लिखा आपने |
    इतने अरसे के बाद भी वाही पुराने तेवर |
    बहुत बहुत बधाइयाँ ..........................

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  2. बेहद खुबसूरत...दिल को छूने वाला दरवेशी कलाम सा लगा.
    जो मुकद्दर में लिखा है, होता तय है ,
    क्यूँ लकीरों से मैं लड़ता जा रहा हूँ !!

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  3. पंकज जी
    पी.सिंह साहब ने आपके बारे में जैसा लिखा था
    आप तो उस से कहीं बढ़कर निकले मान गए जनाब
    आपकी लेखाकारी को | अबतक तो में सिर्फ सिंह साहब की
    गजलों का मुरीद था पर अब आपको भी पढना पढ़ेगा |
    खुदा तो खुद मेरे अन्दर बसा है ,
    क्यूँ मैं काशी और क़ाबा जा रहा हूँ !!
    सच का आइना...
    छंट जांएगे दौलत से ग़ुरबत के ये बादल ,
    ये कैसी तालीम पाता जा रहा हूँ !!
    बहुत खूब
    आपको आपकी पहली रचना के लिए मुबारकां

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